Tuesday, July 5, 2011

दिल, दोस्ती और प्यार....


नितिन आर. उपाध्याय
साइकिल हाथ में लिए राजा गली से गुजर रहा था। गली के ठीक बीच में पहुंचते ही उसके कदम ठिठक गए। चलती साइकिल को खड़ा किया और कुछ सुधारने लगा। साइकिल की ओट से सामने वाले घर में झांकने की लगातार कोशिश कर रहा था। बमुश्किल दो मिनट वो बैठा रहा साइकिल की आड़ में फिर पकड़े जाने के डर से उठा और चल दिया।
गली के बीच वाले मकान में रहती थी गौरी जो कभी उसके साथ पढ़ती थी। अब वो गल्र्स स्कूल में थी और राजा पुराने स्कूल में ही रह गया। गौरी की एक झलक देखने के लिए वो रोज तीन चार मोहल्लों को लांघकर इस गली में आता था। कभी-कभी नुक्कड़ की दुकान पर उससे सामना हो जाता और मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान होता तो राजा का दिन बन जाता। उस दिन वो हवा में होता था। महीनों गुजर गए। सिलसिला चलता रहा। दोस्तों ने समझाया राजा रोज चक्कर लगाने से कुछ नहीं होगा, एक दिन जाकर बात तो करनी ही पड़ेगी।
दोस्तों के समूह में यह एक बड़ा चिंता का विषय था कि राजा के प्रेम रोग का इलाज कैसे किया जाए। सभी इस गहन चिंता में थे। महेश नामक एक मित्र ने गौरी की किसी सहेली मीना से दोस्ती कर ली। अब राजा की जिंदगी में गौरी के बाद सबसे ज्यादा कोई महत्वपूर्ण था तो वो था महेश। महेश ने उसे काफी हिम्मत बंधाई, मीना के जरिए गौरी तक पहुंचेंगे। राजा के सपनों को तो मानो पंख लग गए। अब गौरी की गली में चक्कर काटना छोड़ दिया। अब सुबह से महेश के घर के चक्कर लगने लगे।
महेश और मीना की दोस्ती भी रंग ले रही थी। महेश के लिए राजा की दोस्ती अब वैसी नहीं थी, राजा के लिए महेश महत्वपूर्ण का और महेश के लिए मीना। राजा, महेश की खुशामद में लगा रहता। जो पैसे उसने इस उम्मीद में बचाए थे कि गौरी से जब दोस्ती होगी तो उसे तोहफे देने में काम आएंगे, वो महेश को मनाने में ही खर्च हो गए।
महेश ने अंतत: भरोसा दिलाया।
"चिंता मत कर मैं मीना से कल ही बात करता हूं, वो तेरे लिए गौरी से बात करेगी।"
राजा आसमान में उडऩे लगा। दिन कटने का इंतजार, कभी मंदिर में जाता, कभी सोने की कोशिश करता लेकिन हर प्रयास में असफल।
जैसे-तैसे रात कटी, सूरज निकला। राजा फटाफट तैयार होकर स्कूल के लिए भागा। स्कूल से लौटा, बेग पटका और सीधे महेश के घर।
महेश घर की छत पर अकेला खड़ा था। राजा सीधे गलियारे से होते हुए सीढिय़ों को लांघते हुए तेजी से उसके पास पहुंचा।
उसके सारे सवाल चेहरे पर ही दिख रहे थे। वो कुछ बोलता इससे पहले ही महेश बोल पड़ा।
"तू मेरा साथ छोड़ दे, मुझे अब नहीं रहना तेरे साथ। "
"क्यों"
"क्यों से क्या मतलब? तेरे चक्कर में आज मेरा और मीना का झगड़ा हो गया। मीना ने कहा है वो गौरी से कोई बात नहीं करेगी। मैं उस पर इसके लिए ज्यादा जोर दूंगा तो वो मेरी दोस्ती भी छोड़ देगी। तू अपनी बात खुद कर ले। और अभी तू जा, मीना आने वाली है उसने तूझे देखा तो ज्यादा गुस्सा होगी। "
राजा धम्म से जमीन पर आ गया। भारी मन से सीढिय़ों से उतरा, घर की ओर चल दिया।
घर पहुंचते ही उसने साइकिल उठाई, फिर उस तंग गली में पहुंच गया और बीच वाले मकान के सामने जाते ही उसकी साइकिल फिर रुक गई। साइकिल की आड़ से फिर गौरी के घर में झांकने लगा।

Tuesday, June 28, 2011

अपराधी....


नितिन आर. उपाध्याय
रात का तीसरा पहर बीत रहा था, उसकी आंखों में अभी भी नींद नहीं थी। बस हर करवट के साथ कुछ पल बीत जाते। मन बेचैन था, आंखें दीवारों पर बीते सालों की कुछ तस्वीरें देखने की कोशिश कर रही थीं। कुछ धुंधली तस्वीरें उभर भी आईं।
आठ साल पहले.....मां का लाडला जतिन जैसे ही कॉलेज में पहुंचा बड़ा आदमी बनने का भूत सिर पर सवार हो गया। पिताजी कपड़े की दुकान चलाते थे, बहन स्कूल में थी। पिताजी समझाते रहते, सपनों की दुनिया से बाहर आ, अब जवान हो रहा है, जिम्मेदारियां संभालना सीख। लेकिन जतिन के दिमाग में तो कोई बड़ा आदमी बनने का खुमार छाया हुआ था, जिसके पीछे दुनिया दौड़े। मां ने हमेशा जतिन का ही पक्ष लिया, मां के कवच के आगे पिता के ताने और डांट दोनों ही बेकार जाते थे।
एक दिन दुकान के गल्ले से पैसे निकालकर जतिन ने लॉटरी खरीद ली। हार गया, सारे पैसे गवां दिए। पिताजी को पता चला तो उनका पारा चढ़ गया। कमाना तो दूर अब पैसे उड़ाने पर उतर आया है। जतिन के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया। युवा खून ने उबाल मारा और वह घर छोड़कर मुंबई आ गया। मां रोती रही लेकिन जतिन नहीं माना। पिताजी का गुस्सा ठंडा हुआ तो जतिन की तलाश शुरू हुई लेकिन तब तक वो बहुत दूर निकल चुका था।
सालों बाद कल अचानक जतिन को अपने शहर का एक पुराना दोस्त मुंबई में मिल गया। उसने बताया कि  जतिन तुम्हारे घर छोडऩे के सदमे में मां बीमार हो गईं। जिंदगी के आखिरी साल अस्पताल के बिस्तर पर गुजरे। कोई तीन साल पहले मां दुनिया को छोड़ गई। पिताजी लगभग अपाहिज हो चुके हैं, दुकान महीनों से बंद पड़ी है। बहन छोटी-मोटी नौकरी करके पिता को जिंदा रखे हुए है।
अभी तक सफलता के आसमान में उड़ रहा जतिन अब जमीन पर था। छोटी बहन जिसकी अभी तक शादी हो जानी थी, वो नौकरी कर पिता को पाल रही है। वो अपनी ही नजरों में गिर गया। जिस मां ने हमेशा उसे बचाया वो उसके सदमे में गुजर गई। आज जतिन अपराधी था। एक सफल नौकरीपेशा से एक ही दिन में अपराधी बन गया। सफलता का सारा नशा काफूर हो गया।
अब सुबह हो रही थी। लेकिन जतिन के आगे अंधेरा घना होता जा रहा था। किस मुंह से जाए अपने घर, क्या पिताजी माफ कर देंगे, बहन क्या कहेगी, लोग कैसी बातें करेंगे? जतिन को कई सवालों ने घेर लिया। आइने में खुद से निगाहें मिलाते भी उसे डर लग रहा था। जैसे-जैसे शहर के रास्तों का शोर बढ़ रहा था, जतिन ज्यादा बेचैन हो रहा था। वो उठा, कुर्सी पीछे सरका कर बैठा, टेबल पर रखा एक लेटर पेड उठाया और लिखने लगा। पहले अपने घर का पता लिखा, पिताजी का नाम और फिर अपनी बहन रश्मि का नाम।
प्यारी बहन, 
मुझे माफ कर देना, जो जिम्मेदारी मुझे उठानी थी वो तुम्हें उठानी पड़ रही हैं। पिताजी का अपराधी तो मैं हमेशा से ही था, आज तुम्हारा भी हूं और मां का भी। आज मेरे पास जो भी है वो सब अब तुम्हारा है। इससे तुम्हारा बचपन तो नहीं लौट सकता लेकिन तुम्हें कुछ मदद जरूर मिलेगी। पिताजी जब भी डांटते थे, मां ही मुझे बचाती थी। आज भी मैं बहुत डरा हुआ हूं, पिताजी से और तुमसे नजरें नहीं मिला पाऊंगा। शायद मां ही मुझे बचाएगी, इसलिए मैं उसी के पास जा रहा हूं। हो सके तो मुझे माफ कर देना।
तुम्हारा भाई जतिन

Friday, June 24, 2011

ये बारिश भी अजीब है....



नितिन आर. उपाध्याय
बादल घुमड़ रहे थे, सड़कों पर एकाएक बड़ी-बड़ी बूंदें गिरने लगीं। रूपाली साड़ी का पल्लू सिर पर रखे, तेज कदमों से घर की ओर दौड़ी। तभी रास्ते में दो जानी पहचानी आंखों ने उसकी नजरों को थाम लिया। बारिश तेज होती जा रही थी और उसके कदम धीमें। धीरे से दरवाजा खोलकर घर के भीतर आ गई। बाहर की बारिश बाहर ही रह गई। लेकिन उन आंखों का गिलापन उसे याद आ रहा था। रूपाली की आंखों के आगे सारे दृश्य दौड़ रहे थे। एक बारिश बाहर हो रही थी, दूसरी रूपाली की आंखों से। 
कोई छह महीने पहले कि ही तो बात है जब रूपाली और माधव के प्यार को घर वालों की रजामंदी मिल गई थी। दोनों ही बहुत खुश थे। माधव मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का था और रूपाली एक पोस्टमास्टर की लड़की। दोनों की ही आर्थिक स्थिति सामान्य दर्जे की थी। शादी की तैयारियां शुरू हो गईं। तभी एक रात रूपाली के पिता को हार्ट अटैक आ गया। तैयारियां धरी रह गईं। शादी के लिए संभाला हुआ पैसा इलाज में खर्च हो गया। डॉक्टर कहते हैं बायपास सर्जरी करनी होगी। बहुत पैसा खर्च होगा। कोई मददगार नहीं था। माधव की भी हैसीयत इतनी नहीं थी।
 समाज का नियम होता है, जब कोई अमीर मुसीबत में पड़ता है तो लोग बिना शर्त उसकी मदद करते हैं, इसे व्यवसायिक भाषा में इंवेस्टमेंट कहते हैं लेकिन गरीब के साथ हाथोंहाथ सौदे बाजी होती है। आगे का क्या भरोसा कुछ बचे,  न बचे। दूर के एक रिश्तेदार मदद के लिए आगे आए। जो उसी तरह का एक सौदा था। रूपाली को अपने एक विकलांग बेटे के लिए मांग लिया। शादी का सारा खर्च और पिताजी के इलाज का भी पूरा वादा किया। प्यार से कुछ हासिल नहीं होता लेकिन इस सौदे में पिता की जान बच रही थी। रूपाली ने कुर्बानी का रास्ता चुना। दो महीने पहले शादी हुई। ससुराल वालों ने वादा निभाया और रूपाली के पिता का ऑपरेशन करवाया। आज ऑपरेशन है। मुंबई के एक बड़े अस्पताल में।
 कुर्सी पर बैठी रूपाली आज माधव को देखकर दु:खी थी। उसे दो साल के रिश्ते में गुजरा एक-एक पल याद आ रहा था। हर याद के साथ आंखों से आंसुओं की झड़ी भी। धीरे-धीरे यादों का सावन गुजर गया, आंसू थम गए। वो उठी और काम-काज में लग गई। काम करते-करते फिर कब समय गुजर गया, पता नहीं चला। टेलीफोन की एक घंटी ने उसका ध्यान बंटाया। घर के सन्नाटे को तोड़ती घंटी की आवाज ने माहौल फिर बदल दिया। 
हैलो...
हैलो रूपा...रूपाली के बड़े भाई की आवाज थी। 
रूपा, बाबूजी का ऑपरेशन हो गया, सब ठीक है, डॉक्टर कह रहे हैं अब खतरा नहीं है। बाबूजी ठीक हो गए रूपा...। 
भाई उधर से बोल रहा था लेकिन रूपाली के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। बस फिर एक बारिश शुरू हो गई। आंखों से खुशियों की बारिश। उसने आज पहली बार बारिश के मौसम को इतने नजदीक से महसूस किया था। 

Saturday, June 18, 2011

दुश्मन भी, दोस्त भी चांद


नितिन आर. उपाध्याय
आज की चांदनी रात उसे झुलसा रही थी। रोज की तरह छत पर वो अकेला बैठा चांद को निहार रहा था, लेकिन चांद से आज वो चेहरा गायब था, जो वो रोज देखा करता था। जो चांद उसे अपने में वो खूबसूरत तस्वीर दिखाता था, वो सबसे अच्छा दोस्त हुआ करता था कभी लेकिन आज दुश्मन से भी बढ़कर लग रहा था।
ये आजकल का प्यार भी अजीब है, इतने दिनों से जो चेहरा चांद में रोज दिखता था, आज शाम को झगड़ा हुआ और रात को ही नजारा बदल गया। वो रह-रह कर पुराने दिन याद कर रहा था, लाख कोशिश कर रहा था लेकिन हर कोशिश नाकाम। निराश, हताश, उदास और अनमने मन से वो छत पर ही सो गया।
तभी अचानक पास की छत से किसी की खनकदार हंसी की आवाज आई। उठकर देखा तो एक खूबसूरत लड़की अपनी मां से बातें कर रही थी। नजरें मिली, मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान हुआ। दो घड़ी टकटकी लगाए उस चेहरे को देखता रहा, उदासी के बादल छंट गए, फिर चेहरे पर पहले की तरह प्रेम की लाली चमक उठी। उसने घूमकर चांद को देखा तो चांद भी फिर दोस्त बन चुका था। फिर एक तस्वीर चांद में उभरने लगी, बस चेहरा बदल चुका था।

Wednesday, June 1, 2011

महाभारत की रीमेक तैयार, लेकिन अंत क्या होगा? आप बताएं...।


नितिन आर. उपाध्याय
कहते हैं महर्षि वेद व्यास अष्ट चिरंजीवियों में से एक हैं, यानी दुनिया के ऐसे आठ इतिहास पुरुषों में से एक जिन्हें कभी मृत नहीं माना गया, दुनिया के किसी कोने में वे आज भी जीवित हैं। आपको क्या लगता है वेद व्यास अगर जिंदा हैं तो आजकल क्या कर रहे होंगे? ये सवाल कुछ दिनों से मुझे भी परेशान कर रहा था। सो, मैंने इसका पता लगाने की चेष्टा की है। इस शोध में जो तथ्य सामने आए हैं वे थोड़े चौंकाने वाले हैं लेकिन हमारे देश के इन दिनों के हालातों से काफी मिलते जुलते हैं।
मैंने ये पाया कि महर्षि वेद व्यास इन दिनों महाभारत की रीमेक पर काम कर रहे हैं। जैसा हर रीमेक के साथ होता है कि वक्त और परिस्थितियों के अनुसार घटनाक्रमों और पात्रों की भूमिकाओं में परिवर्तन हो जाता है, वैसा ही कुछ चेंज करके महाभारत का नया वर्जन तैयार किया जा रहा है। नई कहानी यह है कि हस्तिनापुर (यानी आज की दिल्ली) में जब सत्ता कौन संभाले, का सवाल खड़ा हुआ तो सत्यवती ने अपने पुत्र की बजाय सिंहासन पर न बैठने का प्रण कर चुके भीष्म को जबरिया बैठा दिया, सिर्फ इस शर्त पर कि तुम्हें तो केवल मुहर का काम करना है, सत्ता तो हम चला ही लेंगे। राजदंड तो सत्यवती ने अपने हाथ में ही रखा।
भीष्म की साफ छवि का फायदा उठाकर कौरवों और उनकी मदद करने वाले समर्थकों ने फायदा उठाना शुरू किया। भीष्म सब देख रहे थे, शायद विरोध करने के लिए कभी होंठ हिलाए भी होंगे लेकिन सत्यवती के कहने पर उन्हें चुप रहना पड़ा। क्योंकि वे तो गद्दी पर प्रतिनिधि मात्र थे। सत्ता तो सत्यवती के हाथों में थी।  प्रजा जब भी सवाल पूछती तो भीष्म चुप्पी साध लेते, धीरे-धीरे खुद भी आटे में नमक की नीति पर आ गए। जनता त्राही-त्राही कर रही है, विद्रोह भी है, लेकिन कृष्ण अभी अवतार लेने से इंकार रह रहे हैं क्योंकि युधिष्ठिर सहित पांचों पांडवों में मतभेद हैं, वे साथ रहने को तैयार नहीं है।
अब बेचारे महर्षि व्यास की क्या गलती, ये तो पब्लिक डिमांड है। इसे एक्सपेरीमेंटल क्रिएटिविटी कहिए या फिर सृजन की मजबूरी। जिस देश में प्रधानमंत्री के लिए सत्ता चलाना जरूरी कम, मजबूरी ज्यादा हो, वहां आप साहित्यकारों से क्या उम्मीद कर सकते हैं? और महर्षि वेद व्यास तो कहीं दूर घने जंगलों, पहाड़ों की कंदराओं में बैठे हैं। अब वहां चेतन भगत या किसी और क्रिएटिव लेखक का साहित्य तो मिलने से रहा। जिसे पढ़कर कोई नई थीम की कहानी तैयार कर सके। फिर किसे पता कि वे किस जंगल में हैं, भारत में तो अब जंगल भी नहीं बचे हैं इतने घने कि वहां सुकून से रहा जा सके।
इस महाभारत में अर्जुन सबसे मजबूर पात्र है, उसे न तो द्रोपदी को पाने के लिए मछली की आंख भेदनी है और न ही पांचों भाइयों में बांटना है लेकिन त्रासदी ये है कि द्रोणाचार्य आजकल उसके साथ नहीं है, इसलिए उसकी आधी जिंदगी गल्र्स कॉलेज के चक्कर काटने में और किसी दफ्तर में इंटरव्यू के नंबर का इंतजार करने जा रही है। युधिष्ठिर किताबों से सूत्र रट रहे हैं और भीम किसी जिम में सिक्स पैक बनाने में लगे हैं। नकुल-सहदेव कहां है यह तो खुद कुंती को भी नहीं पता। शायद कृष्ण ये इंतजार कर रहे हैं कि ये पांचों भाई एक साथ जुटे तो फिर अवतार लेने के बारे में विचार किया जाए।
कहानी को इतना लिखने के बाद तो अब वेद व्यास भी कन्फ्यूज हैं कि आगे क्या करें? कृष्ण अवतार न लेने पर अड़े हैं और पांडवों की कोई परिस्थिति मेल नहीं खा रही जो वे एक हो जाएं। सत्यवती ने राज्य में घोषणा की है कि फैलते जा रहे भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए वे कटिबद्ध हैं, भ्रष्टों के खिलाफ कार्रवाई भी की जाएगी, नए नियम भी बनेंगे लेकिन राजपरिवार और उससे जुड़े लोगों को इस नए कानून से दूर रखा जाएगा। ताकि निष्कंटक राज्य चलाने में कोई परेशानी न हो।
प्रजा बेचारी हैरान-परेशान है, क्या करे। पांडवों के एकजुट होने का इंतजार करे या फिर कृष्ण के अवतार लेने का। या फिर खुद ही कोई कदम उठाए। आप क्या सोचते हैं? आपकी नजर में नई महाभारत का अंत वेद व्यास कहां करेंगे? जरूर बताइए। आपके जवाबों का इंतजार रहेगा मुझे भी और महर्षि व्यास को भी...।

Tuesday, February 15, 2011

इस ईगो की बलिहारी, जो कराए सो कम

गणित में हम शुरू से ही कमजोर थे, पिताजी से लेकर टीचरजी तक ने मार-मार कर गुणा, भाग और जोड़ सिखाने की कोशिश की लेकिन बेचारे नाकामयाब रहे। हां, लेकिन गणित की कुछ बातें अच्छी लगती थीं, जैसे संख्या मान लेना। सवाल की शुरुआत में टीचर कहते थे मान लीजिए संख्या एक्स है, फिर उसमें कुछ जोड़ा, घटाया, गुणा किया और सही जवाब हाजिर। सवाल आज तक अपनी जगह है लेकिन मान लेने की रस्म हमें भा गई।

जब कलम थामी और कहानी लिखना शुरू की तो किरदारों के नाम पर बात अटकी। पहले सोचा किसी परिचित का नाम दूं, कोई काल्पनिक नाम दूं लेकिन मन में एक विचार खलबली मचाता रहा कि क्यों किसी बेचारे का नाम लिखकर बदनाम करूं। कहीं कोई सम्मान टाइप की चीज मिल गई तो नाहक वो भी श्रेय लेने आ टपकेगा। सो हमने यहां गणित के उस फार्मूले का उपयोग किया।

मान लिया हमारे इस प्रसंग के पात्र का नाम मि. एक्स है, ये अपने ईगो के मारे हैं। हम यहां बात कर रहे हैं, हमारे प्रिय ईगो की, जो हम सबके भीतर परमात्मा की बगल वाली जगह (हम सब के भीतर परमात्मा का अंश है, गीता में लिखी इसी बात से प्रेरित होकर यह पंक्ति लिखी गई है।) में बैठा कई बेतुके काम करवाता है। मि. एक्स भी इसी बीमारी से पीडि़त थे। उनके भीतर से परमात्मा की आवाज ईगो की आवाज में दबकर रह जाती। भीतर बैठे परमात्मा को भूख लगती और वो भोग लगाने को कहता तो ईगो उस पर बैन लगा देता क्योंकि बड़े भाई की तरह उसे खाने के लिए मां ने पूछा नहीं। ईगो को इसी में तृप्ति हो जाती कि उसने बिना सम्मान का भोजन नहीं किया लेकिन बेचारा परमात्मा बिना भोग लगाया रह जाता।

मोहल्ले के चार कॉर्नर प्रेमी लड़कों के साथ मि. एक्स की खूब जमती थी, पांचों में केवल वे एक थे जो अभी भी सीने पर पत्थर रखकर कॉलेज जा रहे थे, शेष चारों तो कभी के कॉलेज को तिलांजलि दे चुके थे। उनका ये मानना था कि कॉलेज में उनकी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं कर रहा था। वे प्रेम के पुजारी थे लेकिन कॉलेज की नासमझ लड़कियों ने उनकी भावनाओं को समझा ही नहीं, पूरे समय किताबों में डूबी रहती थीं, इन्होंने प्रेम के बीज को पानी देने की कोशिश की तो बात प्रिंसिपल तक पहुंच गई और इन्हें शिक्षा की बेडिय़ों से हमेशा के लिए आजादी दे दी गई। अब मोहल्ले के कॉर्नर पर खड़े हर लड़की के आने-जाने का शेड्यूल मैंटेन करते थे।

खैर, हम विषय से न भटकें, ईगो पर टिकें। पिताजी ने धकियाते हुए कॉलेज में तो दाखिला दिला दिया लेकिन....आप समझ ही गए होंगे। इनकी प्रतिभा के साथ भी न्याय नहीं हो रहा था। ये प्रेम के पुजारी नहीं थे, इनका मानना था कि दुनिया में समझदारी की नदी का प्रवाह इन तक आने के बाद ही तेज हुआ है, लेकिन कई बार प्रोफेसर्स और सहपाठियों ने इन्हें मूर्ख, अडिय़ल और ढब्बू जैसे तमगों से नवाज दिया था। ये समझते थे कि ये जो जानते हैं वहीं ज्ञान दुनिया के लिए पर्याप्त है, उसी को सही साबित करने में तुले रहते थे। क्लासेस से निकाले जाने पर भी इनका ईगो इन्हें झुकने नहीं देता। कभी गलती नहीं मानते। पिताजी ने जैसे-तैसे एक नौकरी भी जुटा दी।

बड़ा भाई तेज दिमाग था, कॉलेज में अव्वल रहा तो नौकरी भी बढिय़ा मिली। मोटरसाइकिल से जाता है काम पर, मि. एक्स को मुनीमजी टाइप कहीं हिसाब-किताब का काम मिला, ईगो को चोट लगी, घायल शेर की तरह मैं साइकिल पर नहीं जाऊंगा। पिताजी ने समझाया पहले काम जम जाए, नौकरी पक्की तो हो, लेकिन नहीं मानें। साइकिल पर जाने में शर्म आती थी, सो अब पैदल जाते हैं।

हां, समय ज्यादा लगता है, देरी से आने की झिड़की भी सुन लेते हैं लेकिन ईगो खुश है कि पिताजी की नाइंसाफी के आगे नहीं झुके। पिताजी ने दूसरी नौकरी का इंतजाम भी किया लेकिन वह सिर्फ इसीलिए नहीं कि क्योंकि वहां बड़ा भाई अधिकारी था। उसकी गुलामी कैसे स्वीकार करता। सो मुनीमगिरी जारी है।

(शेष अगली किस्त में....)

Saturday, February 5, 2011

मौसम-ए-इश्क है, जरा इंजाय कीजिए.....

लीजिए साहब मौसम-ए-इश्क फिर आ गया। लाल फूलों के पौधों को खाद-पानी पिलाया जा रहा है और केसरिया झंडे के डंडों को तेल। हमारे देश में विदेशी संत मरहूम वेलेंटाइन की याद को ऐसे ही ताजा किया जाता है। वेलेंटाइन की परंपरा हमारे देश में ऐसे ही जोश से निभाई जाती है जैसा माहौल  फिलहाल मिस्र में है। नौजवान पीढ़ी पूरे जोश से प्रेम की गंगा बहाने को तैयार है और एक धड़ा इस गंगा के पानी को पोंछा लेकर साफ करने को उतारू होगा।

हम तो बात कर रहे हैं प्रेम के उस महोत्सव की जिसका जितना समर्थन है उतना ही विरोध भी है। समर्थक और विरोधी दोनों ही अपने-अपने हिसाब से तैयारी में जुटे हैं। समर्थक नौजवानों ने थर्टी फस्र्ट की नाइट सेलिबे्रट करने के बाद कोई पार्टी नहीं की क्योंकि बचे हुए बजट से वेलेंटाइन गिफ्ट खरीदना है। रसूखदार दोस्तों की चापलूसी का दौर भी शुरू हो गया है क्योंकि गर्ल फ्रेंड को महंगा गिफ्ट देने के लिए फाइनेंस यहींं से मिलता है। कार्ड गैलेरी और गिफ्ट शॉप वाले भी हार्टशेप के गिफ्ट सजा रहे हैं। आखिर क्यों न हो, वेलेंटाइन-डे तो मदर्स-डे और टीचर्स-डे से बड़ा फेस्टिवल है।

पवित्र तारीख 14 फरवरी के लिए प्रेमियों की शेष तैयारियां भी जारी हैं। जीने-मरने की कसमें किस स्तर तक खानी है यह गिफ्ट देखकर तय किया जाएगा। अगला वेलेंटाइन किसके साथ मनाएं यह तभी डिसाइड होगा जब गिफ्ट की असली कीमत मार्केट से पता चल जाए। लड़के कस्में वादों की लिस्ट रट रहे हैं और लड़कियां रुठने-नखरे दिखाने के नए तरीकों पर काम कर रही हैं। सहेलियों में शर्त लगी है जिसका मुर्गा सबसे बड़ा और महंगा गिफ्ट देगा, वो सबको पार्टी देगी।

यह तो हुई समर्थकों की बातें, विरोधियों की तैयारी तो इससे भी आगे की है भाई साहब। उन्हें तो हर गतिविधि की जानकारी ऊपर तक भेजना है, वह भी मय सबूत। आठ दिन पहले से कुछ खबरनवीसों की खुशामद भी शुरू कर दी है। बड़े भैयाजी ने विरोध के कुछ नए तरीकों के लिए मीटिंग भी बुलाई है, सबको काम सौंप दिया गया है। कुछेक कार्ड गैलेरी वालों को एडवांस पैमेंट करके पिछले साल के बचे पुराने ग्रिटिंग कार्ड भी निकलवा लिए हैं ताकि वेलेंटाइन-डे के एक दिन पहले ही जाकर उनमें आग लगाई जा सके और प्रेम के प्रतीक वाले कार्ड की जलती तस्वीर को ऊपर तक भेज सकें। 

ये इंडिया है जनाब, यहां ऐसा ही होता है। खैर छोडि़ए इसे, आप बताइए आप कैसे इंजाय करेंगे इस मौसम-ए-इश्क को।