Tuesday, February 15, 2011

इस ईगो की बलिहारी, जो कराए सो कम

गणित में हम शुरू से ही कमजोर थे, पिताजी से लेकर टीचरजी तक ने मार-मार कर गुणा, भाग और जोड़ सिखाने की कोशिश की लेकिन बेचारे नाकामयाब रहे। हां, लेकिन गणित की कुछ बातें अच्छी लगती थीं, जैसे संख्या मान लेना। सवाल की शुरुआत में टीचर कहते थे मान लीजिए संख्या एक्स है, फिर उसमें कुछ जोड़ा, घटाया, गुणा किया और सही जवाब हाजिर। सवाल आज तक अपनी जगह है लेकिन मान लेने की रस्म हमें भा गई।

जब कलम थामी और कहानी लिखना शुरू की तो किरदारों के नाम पर बात अटकी। पहले सोचा किसी परिचित का नाम दूं, कोई काल्पनिक नाम दूं लेकिन मन में एक विचार खलबली मचाता रहा कि क्यों किसी बेचारे का नाम लिखकर बदनाम करूं। कहीं कोई सम्मान टाइप की चीज मिल गई तो नाहक वो भी श्रेय लेने आ टपकेगा। सो हमने यहां गणित के उस फार्मूले का उपयोग किया।

मान लिया हमारे इस प्रसंग के पात्र का नाम मि. एक्स है, ये अपने ईगो के मारे हैं। हम यहां बात कर रहे हैं, हमारे प्रिय ईगो की, जो हम सबके भीतर परमात्मा की बगल वाली जगह (हम सब के भीतर परमात्मा का अंश है, गीता में लिखी इसी बात से प्रेरित होकर यह पंक्ति लिखी गई है।) में बैठा कई बेतुके काम करवाता है। मि. एक्स भी इसी बीमारी से पीडि़त थे। उनके भीतर से परमात्मा की आवाज ईगो की आवाज में दबकर रह जाती। भीतर बैठे परमात्मा को भूख लगती और वो भोग लगाने को कहता तो ईगो उस पर बैन लगा देता क्योंकि बड़े भाई की तरह उसे खाने के लिए मां ने पूछा नहीं। ईगो को इसी में तृप्ति हो जाती कि उसने बिना सम्मान का भोजन नहीं किया लेकिन बेचारा परमात्मा बिना भोग लगाया रह जाता।

मोहल्ले के चार कॉर्नर प्रेमी लड़कों के साथ मि. एक्स की खूब जमती थी, पांचों में केवल वे एक थे जो अभी भी सीने पर पत्थर रखकर कॉलेज जा रहे थे, शेष चारों तो कभी के कॉलेज को तिलांजलि दे चुके थे। उनका ये मानना था कि कॉलेज में उनकी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं कर रहा था। वे प्रेम के पुजारी थे लेकिन कॉलेज की नासमझ लड़कियों ने उनकी भावनाओं को समझा ही नहीं, पूरे समय किताबों में डूबी रहती थीं, इन्होंने प्रेम के बीज को पानी देने की कोशिश की तो बात प्रिंसिपल तक पहुंच गई और इन्हें शिक्षा की बेडिय़ों से हमेशा के लिए आजादी दे दी गई। अब मोहल्ले के कॉर्नर पर खड़े हर लड़की के आने-जाने का शेड्यूल मैंटेन करते थे।

खैर, हम विषय से न भटकें, ईगो पर टिकें। पिताजी ने धकियाते हुए कॉलेज में तो दाखिला दिला दिया लेकिन....आप समझ ही गए होंगे। इनकी प्रतिभा के साथ भी न्याय नहीं हो रहा था। ये प्रेम के पुजारी नहीं थे, इनका मानना था कि दुनिया में समझदारी की नदी का प्रवाह इन तक आने के बाद ही तेज हुआ है, लेकिन कई बार प्रोफेसर्स और सहपाठियों ने इन्हें मूर्ख, अडिय़ल और ढब्बू जैसे तमगों से नवाज दिया था। ये समझते थे कि ये जो जानते हैं वहीं ज्ञान दुनिया के लिए पर्याप्त है, उसी को सही साबित करने में तुले रहते थे। क्लासेस से निकाले जाने पर भी इनका ईगो इन्हें झुकने नहीं देता। कभी गलती नहीं मानते। पिताजी ने जैसे-तैसे एक नौकरी भी जुटा दी।

बड़ा भाई तेज दिमाग था, कॉलेज में अव्वल रहा तो नौकरी भी बढिय़ा मिली। मोटरसाइकिल से जाता है काम पर, मि. एक्स को मुनीमजी टाइप कहीं हिसाब-किताब का काम मिला, ईगो को चोट लगी, घायल शेर की तरह मैं साइकिल पर नहीं जाऊंगा। पिताजी ने समझाया पहले काम जम जाए, नौकरी पक्की तो हो, लेकिन नहीं मानें। साइकिल पर जाने में शर्म आती थी, सो अब पैदल जाते हैं।

हां, समय ज्यादा लगता है, देरी से आने की झिड़की भी सुन लेते हैं लेकिन ईगो खुश है कि पिताजी की नाइंसाफी के आगे नहीं झुके। पिताजी ने दूसरी नौकरी का इंतजाम भी किया लेकिन वह सिर्फ इसीलिए नहीं कि क्योंकि वहां बड़ा भाई अधिकारी था। उसकी गुलामी कैसे स्वीकार करता। सो मुनीमगिरी जारी है।

(शेष अगली किस्त में....)

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