Tuesday, June 28, 2011

अपराधी....


नितिन आर. उपाध्याय
रात का तीसरा पहर बीत रहा था, उसकी आंखों में अभी भी नींद नहीं थी। बस हर करवट के साथ कुछ पल बीत जाते। मन बेचैन था, आंखें दीवारों पर बीते सालों की कुछ तस्वीरें देखने की कोशिश कर रही थीं। कुछ धुंधली तस्वीरें उभर भी आईं।
आठ साल पहले.....मां का लाडला जतिन जैसे ही कॉलेज में पहुंचा बड़ा आदमी बनने का भूत सिर पर सवार हो गया। पिताजी कपड़े की दुकान चलाते थे, बहन स्कूल में थी। पिताजी समझाते रहते, सपनों की दुनिया से बाहर आ, अब जवान हो रहा है, जिम्मेदारियां संभालना सीख। लेकिन जतिन के दिमाग में तो कोई बड़ा आदमी बनने का खुमार छाया हुआ था, जिसके पीछे दुनिया दौड़े। मां ने हमेशा जतिन का ही पक्ष लिया, मां के कवच के आगे पिता के ताने और डांट दोनों ही बेकार जाते थे।
एक दिन दुकान के गल्ले से पैसे निकालकर जतिन ने लॉटरी खरीद ली। हार गया, सारे पैसे गवां दिए। पिताजी को पता चला तो उनका पारा चढ़ गया। कमाना तो दूर अब पैसे उड़ाने पर उतर आया है। जतिन के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया। युवा खून ने उबाल मारा और वह घर छोड़कर मुंबई आ गया। मां रोती रही लेकिन जतिन नहीं माना। पिताजी का गुस्सा ठंडा हुआ तो जतिन की तलाश शुरू हुई लेकिन तब तक वो बहुत दूर निकल चुका था।
सालों बाद कल अचानक जतिन को अपने शहर का एक पुराना दोस्त मुंबई में मिल गया। उसने बताया कि  जतिन तुम्हारे घर छोडऩे के सदमे में मां बीमार हो गईं। जिंदगी के आखिरी साल अस्पताल के बिस्तर पर गुजरे। कोई तीन साल पहले मां दुनिया को छोड़ गई। पिताजी लगभग अपाहिज हो चुके हैं, दुकान महीनों से बंद पड़ी है। बहन छोटी-मोटी नौकरी करके पिता को जिंदा रखे हुए है।
अभी तक सफलता के आसमान में उड़ रहा जतिन अब जमीन पर था। छोटी बहन जिसकी अभी तक शादी हो जानी थी, वो नौकरी कर पिता को पाल रही है। वो अपनी ही नजरों में गिर गया। जिस मां ने हमेशा उसे बचाया वो उसके सदमे में गुजर गई। आज जतिन अपराधी था। एक सफल नौकरीपेशा से एक ही दिन में अपराधी बन गया। सफलता का सारा नशा काफूर हो गया।
अब सुबह हो रही थी। लेकिन जतिन के आगे अंधेरा घना होता जा रहा था। किस मुंह से जाए अपने घर, क्या पिताजी माफ कर देंगे, बहन क्या कहेगी, लोग कैसी बातें करेंगे? जतिन को कई सवालों ने घेर लिया। आइने में खुद से निगाहें मिलाते भी उसे डर लग रहा था। जैसे-जैसे शहर के रास्तों का शोर बढ़ रहा था, जतिन ज्यादा बेचैन हो रहा था। वो उठा, कुर्सी पीछे सरका कर बैठा, टेबल पर रखा एक लेटर पेड उठाया और लिखने लगा। पहले अपने घर का पता लिखा, पिताजी का नाम और फिर अपनी बहन रश्मि का नाम।
प्यारी बहन, 
मुझे माफ कर देना, जो जिम्मेदारी मुझे उठानी थी वो तुम्हें उठानी पड़ रही हैं। पिताजी का अपराधी तो मैं हमेशा से ही था, आज तुम्हारा भी हूं और मां का भी। आज मेरे पास जो भी है वो सब अब तुम्हारा है। इससे तुम्हारा बचपन तो नहीं लौट सकता लेकिन तुम्हें कुछ मदद जरूर मिलेगी। पिताजी जब भी डांटते थे, मां ही मुझे बचाती थी। आज भी मैं बहुत डरा हुआ हूं, पिताजी से और तुमसे नजरें नहीं मिला पाऊंगा। शायद मां ही मुझे बचाएगी, इसलिए मैं उसी के पास जा रहा हूं। हो सके तो मुझे माफ कर देना।
तुम्हारा भाई जतिन

No comments:

Post a Comment